Friday, April 8, 2016

इतिहास शिक्षण में स्थानीय अतीत का स्थान

इस पर्चे की शुरुआत करने से पहले हमें यह समझना कि इतिहास क्या है? इसका जवाब सामान्यतया  होगा कि इतिहास हमें अपने बारे में बताता है | इतिहास हमें वर्तमान से  अतीत के विषय में बताते हुए भविष्य के निर्धारण के विषय में भी बताता है |इतिहास हमें बताता है कि दुनिया कैसे विकसित हुई | प्राय; हम जिस परिवेश में रहते है तो हमे यह लगने लगता है कि हमारे आस पास की वस्तुएँ हमेशा से ऐसी ही रही है जैसी हमें दिख रही है लेकिन इतिहास इसे नकारते हुए यह मानता है कि वस्तुए हमेशा से ऐसी नही थी जैसी दिख रही है|  इसका पता लगाने के लिए हमें इतिहास जानना पड़ेगा|जिसकी निर्मिति परिघटना, इतिहासकार और इतिहासलेखन की परस्पर अंत;क्रिया से होता है | जिसके विषय में ई.एच.कार कहते है कि ''इतिहास, इतिहासकार और तथ्यों की  क्रिया प्रतिक्रिया की अनवरत प्रक्रिया है, अतीत और वर्तमान के बीच एक अंतहीन संवाद है  (कार :2012:21)|                         
इतिहास को जानने या परिभाषित करने के बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है यह समझना कि  इतिहास की निर्मिति कैसे होती है | जैसा कि हम जानते है कि संसार  के प्रत्येक वस्तु,प्राणी,क्षेत्र का अपना एक  इतिहास होता है जो प्राय: उसको विरासत में मिलता है | जैसा कि हम स्कूलों में जहाँ से इतिहास से रूबरू होते है,कई प्रकार के लोगों,वस्तुओं का इतिहास पढ़ना आरम्भ करते है | जिनके विषय में हमारा कोई संज्ञान नही होता है कि हम जिस इतिहास को पढ़ रहे है वह वास्तव में है क्या? उसका हमारे जीवन से क्या लेना देना है? अगर है भी तो कैसे?इन सवालों की पड़ताल करने से पहले हमें यह समझना होगा कि इतिहास की निर्मिति कैसे होती है और किसका इतिहास लिखा जाता है? सामान्यतया इतिहास जो लिखा जाता है वह  परिघटना ,इतिहासकार और इतिहासलेखन की अन्त ;क्रिया का परिणाम होता है | वस्तुतःपरिघटना ,इतिहासकार और इतिहासलेखन  अलग  अलग वस्तुए है किन्तु इनका इतिहास की निर्मिति के सन्दर्भ में कोई पृथक  स्वतंत्र अस्तित्व नही होता हैऔर इतिहासबोध या इतिहासदृष्टि एक अलग वस्तु है |
               परिघटना,इतिहासकार,इतिहासलेखन ये तीनों इतिहास बोध की परिधि से बाहर की वस्तु है | जिसमे परिघटना,इतिहासकार और इतिहासलेखन तीनों मिलकर इतिहास को मान्यता प्रदान करते हुए स्थापित करने का प्रयास करते है | लेकिन यहाँ जो सवाल उत्पन्न हो रहा है वह ये है कि जो घटनाए इन तीनों (परीघटना ,इतिहासकार ,इतिहासलेखन ) में शामिल नही हो पाती, क्या उनका इतिहास नही होता है?क्या वह इस लायक नही होती  है कि उनको इतिहासकारों की सहमति मिले?ऐसी स्तिथि में हमें यह देखना पड़ेगा कि कौन सी वस्तुए थी जो इतिहास की मुख्यधारा में शामिल नही होने से छुट गयी| जब हम इस तथ्य को समझते है तो पाते है कि दलित, अल्पसंख्यक, महिला जो हाशिए पर थे उनका इतिहास नही लिखा गया आखिर उनके क्या कारण है जिससे ये लोग इतिहास की परिभाषा नही पा सके ?यदि इतिहास सिर्फउन्ही का माना जाय जिनका लिखा गया तो क्या उनका इतिहास नही था जिनका इतिहास नही लिखा गया है ?              
                 इतिहास पढ़ाने के लिए यह आवश्यक नही है कि इतिहास उन्ही का पढाया जाय जिनका इतिहास लिखा गया है या जो हमारी पाठ्यपुस्तकों में है वही इतिहास पढ़ाया जाय| जरुरी है बच्चें में उस इतिहास बोध को उत्पन्न करने की जिसकी सहायता से वह इतिहास निर्मिति की पूरी प्रक्रिया को समझ सके| जिसकी सहायता से बच्चें पाठ्यपुस्तकीय इतिहास को अपने बाह्य वातावरण के इतिहास से जोड़ते हुए उसे अच्छी तरह से समझ सके या इतिहास से मिथक और मिथक से इतिहास को अलग कर सके नही तो पाठ्य पुस्तकीय इतिहास सीखने वालें के लिए सिर्फ तथ्य या सूचनाओं तक ही सीमित रह जाएगा| इतिहास सीखने सिखाने की यह स्कूली संस्कृति बच्चें को स्थानीय इतिहास से दूर ले जाती है |                 लिखने वालों का ही माना जाय   .........                 यदि इन सवालों की पड़ताल करे तो शायद पाएँगे कि इतिहास सीखने सिखाने इस स्कूली अवस्था में बच्चें के बाह्य वातावरण या उसके आसपास के स्थानीय इतिहास से उसका कोई लेकी ना देना नही रहता है| जो हमें सोचने को मजबूर करता है कि क्या स्थानीय इतिहास को पाठ्यचर्या में नही शामिल किया जाता? क्या हर जगह के स्थानीय इतिहास को पाठ्यचर्या में शामिल किया जाना चाहिए?यदि नही शामिल सकता तो क्या स्थानीय इतिहास को नही सीखाया जाना चाहिए?अगर सीखाया जाना चाहिए तो फिर कैसे?
             जब सवाल स्थानीय इतिहास को स्कूली पाठ्यचर्या में शामिल करने या सीखाये जाने को लेकर है तो सवाल यह भी होना चाहिए कि इतने छोटे स्तर पर स्थानीय इतिहास लिखे भी गए है?अगर नही तो क्यों नही लिखे गए?जो हमें इतिहास लेखन की चर्चा के लिए संकेत कर रहा है कि आखिर इतिहास लेखन कौन लोग करते थे? किसका इतिहास लिखा जाता था? किस स्रोत के आधार पर लिखा जाता था?
           इतिहास लेखन का आरम्भ कथाओं,मिथकों जैसे स्रोतों से शुरू होकर पुरातत्व,साहित्य,यात्रा वृतांत जैसे तथ्य आधारित स्रोतों तक का सफर तय करता है| इतिहासकार लालबहादुर वर्मा के अनुसार "अति प्राचीन काल में जब इतिहास लेखन शुरू भी नही हुआ था,मनुष्य मिथकों और गाथाओं के माध्यम से अपने अतीत की कथा स्मृति को यथासंभव सुरक्षित रखता था लेकिन उस समय यथार्थ और कल्पना इस तरह घुल मिल जाते थे कि उनको अलग करना भी मुश्किल था"|प्रत्येक कालों में होने वाले इतिहास लेखन का विश्लेषण करने पर स्थानीय इतिहास लेखन को लेकर स्तिथि कुछ स्पष्ट हो जाती है|
             प्राचीन काल में इतिहास लेखन का काम राजा ,महाराजा के दरबार में रहने वाले दरबारी कवि ,साहित्यकार या बुद्धिजीवी वर्ग किया करता था|यह दरबारी बुद्धिजीवी वर्ग ज्वादातर अपने शासकों की प्रशंसा,राजा द्वारा सम्पन्न की गयी घटनाओं,दरबारी शानशौकत या शासकों द्वारा लागू सामाजिक,राजनीतिक आर्थिक नीतियों के विषय में लिखा करते थे न कि राज्य के किसी कोने में स्तिथ स्थानीय क्षेत्र के लोगों का इतिहास लिखते थे|इस समय प्रान्तों के इतिहास लिखे गये थे जैसे कल्हण ने अपनी राजतारंगिनी में कश्मीर का इतिहास लिखा|मेगस्थनीज ने ''इंडिका'' में भारतीय जातियों के विषय में तो कौटिल्य ने ''अर्थशास्त्र'' में तत्कालीन शासन व्यवस्था का वर्णन किया है|इसके आगे गुप्तकाल तक किसी ने भी स्थानीय इतिहास को नहीं लिखा है |
               मध्कालीन इतिहासकारों द्वारा भी किसी स्थानीय इतिहास लेखन के साक्ष्य नही मिलते है|बारहवी सदी से लेकर उत्तर मुगल काल तक सिर्फ शासकों से लेकर उनको चुनौतियाँ देने वाले लोगो का ही इतिहास लिखा गया|कुछ समुदाय विशेष लोगों का इतिहास लिखा गया है जैसे जाटों का इतिहास,राजपूतों का इतिहास जिन्होंने मुगलों की सत्ता को खिलाफ बगावत की थी|बाबरनामा में बाबर द्वारा उत्तर भारत के सौन्दर्य का वर्णन मिलता है लेकिन किसी स्थानीय क्षेत्र का इतिहास नही मिलता है | इन सबका लिखने का स्रोत स्वयं का अनुभव या प्रत्यक्ष दर्शन था |
               आधुनिक काल के इतिहास लेखन में प्राचीन काल और मध्यकाल के इतिहास लेखन की तुलना में वस्तुनिष्ठता आती है|इस समय के इतिहास लेखन पर पुनर्जागरण और औपनिवेशिक शासन का प्रभाव था |इस समय तक इतिहास लेखन तथ्य आधारित हो गया था|ब्रिटिश काल प्रांतीय इतिहास लेखन मिलता है जैसे कर्नल ताड द्वारा लिखा ''राजस्थान का इतिहास''जिसमे उन्होंने राजस्थान के राजनैतिक इतिहास के साथ राजपूतों की वीरता का भी जिक्र किया है|इस समय ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विभिन्न समुदाओं और क्षेत्र के लोगों द्वारा किए विद्रोह का इतिहास पाया जाता है जैसे दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक ''नील दर्पण ''में बंगाल, बिहार के नील काश्तकारों द्वारा किए गए विद्रोह का वर्णन मिलता है,बंगाल में होने वाले संन्यासी विद्रोह के बारे में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ''आनंद मठ ''में लिखा है |
              आधुनिक काल में इतिहास लेखन बड़े बड़े शासकों के साथ छोटे छोटे क्षेत्रो में रहने वाली जनजातियों एवं समुदायों का भी लिखा गया है जिन्होंने ब्रिटिश या अन्य किसी प्रकार की सत्ता को चुनौती दी |
                प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास लेखन के सामान्य अध्ययन से स्तिथि स्पष्ट होती है कि इतिहास उन्ही का लिखा गया है जो समाज में वर्चस्वशाली थे ,किसी प्रकार की सत्ता थी या जिसने किसी प्रकार की सत्ता को चुनौती दी |इतिहास लेखन के किए स्रोत भी उन्ही के मिलता है जिनके पास संसाधनों की अतिरिक्तता थी |
                      प्रांतीय या क्षेत्रीय इतिहास लिखे गए चाहे वह प्राचीन काल में हो या आधुनिक काल में, लेकिन हम जिस स्कूलीय इतिहास शिक्षण को बच्चे के स्थानीय इतिहास से जोडकर सीखने की बात कर रहे है उस  स्थानीय स्तर का इतिहास नही लिखा गया है |इन परिस्थितियों के आकलन से स्पष्ट है यदि स्थानीय इतिहास नही लिखा गया तो बच्चे को उसके स्थानीय इतिहास को पाठ्यपुस्तकीय इतिहास से कैसे जोड़कर  पढाया जाय?
                 अब हम ऐसे इतिहास जिसके विषय में हमें कोई जानकारी नहीं रहती है,जिसका हमारे आसपास के जीवन से कोई सम्बन्ध नही नजर आता है,न ही उसके बारे में कभी कुछ सुने रहते है| जब वह हमारे स्कूलों की पाठ्यचर्या में शामिल हो जाता है तब हम क्या करते है?और कैसे सीखाया जाता है इसकी चर्चा करेंगे|स्कूलों में हमें अनभिज्ञ इतिहास अनभिज्ञतापूर्ण पढ़ाया जाता है |जिस इतिहास की शुरुआत हमारे घर से होने चाहिए उस इतिहास की शुरुआत किसी कपोलकल्पित दुनिया की कपोलकल्पित घटना से होती है उसको भी सूचनात्मक तरीके से बताते हुए बच्चे को रटने के लिए मजबूर किया जाता है|
                   स्कूलों में इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर औपनिवेशिक काल के बाद तक बता दिया जाता है|पढ़ाना या सीखना जो एक सामाजिक प्रक्रिया है लेकिन कक्षा में इतिहास को एक तरफा तरीके से पढ़ाया जाता है जिसमें बच्चे की भूमिका सिर्फ सुनने की होती है और अध्यापक की भूमिका एक वक्ता के रूप में होती है|बच्चें और शिक्षक के बीच किसी प्रकार की कोई अंतक्रिया नही होती है|शिक्षक की तरफ से किसी ऐतिहासिक घटना को ऐसे नही बताया जाता जिससे उस घटना के प्रति बच्चा सोच सके,उसमे वह सजीवता नही उत्पन्न हो पाती जिसको बच्चा अपने व्यवहारिक जीवन में प्रयोग करके चीजों को समझ सके| जिसकी बात राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005 करती है कि ''इतिहास को इस तरह से पढाया जाना चाहिए कि उसके माध्यम से विद्यार्थियों में अपनी दुनिया की बेहतर समझ विकसित हो सके और वे अपनी उस पहचान को भी समझ सके जो उसके समृद्ध और विविध अतीत का हिस्सा रही है"|
         इतिहास में हमे वह सब कुछ बता दिया जाता है जो इतिहास में होता है जैसे सिन्धु नदी  घाटी सभ्यता को सिन्धु नदी घाटी के नाम से क्यों जानते है ?सिन्धु नदी घाटी के लोगो का रहन सहन ,भवन की स्तिथि ,किसी शहर का नामकरण कैसे हुआ ?लाल किला को लाल किला क्यों कहा जाता है ?इसका निर्माण किसने करवाया ?एक राजा दुसरे राजा से क्यों लड़ते थे ?निजामुद्दीन औलिया की दरगाह को निजामुद्दीन औलिया के नाम से क्यों जानते है ?निजामुद्दीन औलिया की दरगाह का निर्माण किसने करवाया?विभिन्न कालो में सामाजिक व्यवस्था क्या थी ?विभिन्न महापुरुषों का इतिहास या उनका योगदान जैसे तथ्यों को ऐसे पढाया जाता है जैसे उनका हमारे जीवन से कभी कोई सम्बन्ध ही नही रहा था |इस प्रकार की पाठ्य पुस्तकीय इतिहास शिक्षण की संस्कृति हमें अपने स्थानीय इतिहास की संस्कृति से दूर ले जाती है |
         स्कूलों में इतिहास शिक्षण के दौरान हर ऐतिहासिक घटना और उसके घटित होने के कारणों को बहुत आसानी से बता दिया जाता है जैसे सिन्धु घाटी सभ्यता के नामकरण के विषय में यह बता दिया जाता है यह सिन्धु नदी के पास पायी जाने के कारण इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता के नाम से जानते है लेकिन इसी तथ्य को हमारे व्यवहारिक जीवन से जोड़कर नही बताया जाता कि हमारे गाँव या मोहल्ले का नाम यदि रामनगर है तो क्यों उसका नाम रामनगर है इसके कारण को जानने के लिए हमें नही प्रेरित किया जाता था सिर्फ इतिहास को सुनने तक ही सिमित रखा जाता था |
        स्कूलों में इतिहास शिक्षण को हमारे बाह्य वातावरण में सीखने की जो उत्सुकता होती है उससे जोड़कर नही सिखाया जाता है |इतिहास शिक्षण को हमारे घर के वातावरण ,आसपास मौजूद संसाधनों के तुलना करते हुए पढ़ाना चाहिए जैसे यदि सिन्धु घाटी सभ्यता में सड़के एक दुसरे को समकोण पर काटती है तो क्या हमारे गाँव या मोहल्ले में सड़के एक दुसरे को समकोण पर काटती है?हमारे गाँव में आसपास स्थानीय क्षेत्र में कोई मस्जिद है तो क्यों है ?उसको किसने बनवाया है?क्या हम जिस प्रकार के वस्त्र का उपयोग आज करते है उसी प्रकार के वस्त्र का उपयोग हमारे दादा परदादा भी किया करते थे यदि नही करते थे तो किस प्रकार के वस्त्र का उपयोग करते थे ?
               

Sunday, January 24, 2016

व्यवस्था बनाम आत्महत्या

आज के इस आधुनिक लोकतांत्रिक सभ्य समाज में रहते हुए हमारे सामने कभी कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती है या फिर घटा दी जाती है जो हमे यह सोचने को मजबूर कर देती है कि क्या हम एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज में ही रहते है? ऐसी घटना जिसका परिणाम हमे आज के इस 21वी सदी के वैज्ञानिक लोकतांत्रिक समाज में सामंतवादी सोच की निरन्तरता का एहसास कराती है| यह मामला हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या से सम्बंधित है जो सिर्फ एक आत्महत्या ही नही बल्कि संस्थानिक सोची समझी हत्या है जो हमारे देश के शिक्षण संस्थाओं के लोकतांत्रिक समतामूलक रवैये पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अपने पीछे कई सारे अनसुलझने वाले संस्थायी सर्वब्यापी सवालों को भी अपने छोड़ जाते है| रोहित वेमूला की आत्महत्या के पीछे जिस प्रकार के कारणों की पृष्ठभूमि जिम्मेदार है उस प्रकार की पृष्ठभूमि देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में आसानी से पायी जा सकती है जिसके लिए अधिकेन्द्र का काम रोहित वेमूला की आत्महत्या ने किया है | हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा रोहित के खिलाफ कार्यवाई से लेकर उसकी आत्महत्या के बीच की परिस्थितियों की पड़ताल करने पर पाया जाता है कि इसके पीछे एक सोची समझी साजिश थी जो किसी खास विचारधारा से ओतप्रोत थी| रोहित वेमूला दलित छात्र था जो अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन छात्र संगठन से जुड़ा हुआ था रोहित वेमूला और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के अन्य सदस्यों ने विश्वविद्यालय परिसर में "मुजफ्फरनगर अभी बाकी है " फिल्म दिखाए जाने के समर्थन में विरोध प्रदर्शन किया था और याकूब मेनन की फासी का विरोध किया था जिसको लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य  छात्रों ने इनका विरोध किया और बाद में चलकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता ने रोहित सहित उसके चार अन्य साथियों पर मारपीट का झूठा आरोप लगाकर विश्वविद्यालय प्रशासन से शिकायत कर दी जिसके कारण विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोहित सहित उसके चार अन्य साथियों को हास्टल से बाहर निकालते हुए विश्वविद्यालय के किसी भी सार्वजानिक स्थान पर जाने से रोक लगा दिया शिवाय कक्षा और अकेडमिक बैठकों के| उस क्षेत्र के सांसद और केन्द्रीय राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने रोहित और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन की गतिविधियों को अतिवादी,देशद्रोही करार देते हुए मानव संसाधन मंत्रालय को पत्र भेजा कि विश्वविद्यालय में अराजकतावादी अतिवादी माहौल बना हुआ है जो ठीक नही है इसको सुधारा जाय| अगर बंडारू दत्तात्रेय विश्वविद्यालय में होने वैचारिक गतिविधियों को राष्ट्रद्रोही करार देते है तो देश की पंचायत संसद में होने वाली बहस को क्या कहेंगे इसका निर्धारण भी उनको करना चाहिए | रोहित और उसके चार अन्य साथियों ने विश्वविद्यालय द्वारा अपने प्रति लिए गये निर्णयों का मुखर विरोध करते हुए हास्टल के बाहर टेंट लगा लिया |रोहित लगातार विश्वविद्यालय प्रशासन पर आरोप लगता रहा कि यहाँ दलित छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है जिसको लेकर उसने कुलपति को पत्र भी लिखा था कि विश्वविद्यालय प्रशासन को प्रवेश के समय दलित छात्रों को जहर की गोली और रस्सी मुहैया करा देनी चाहिए जिससे दलित छात्र अपनी आत्महत्या कर सके|रोहित का यह पत्र सोचने को मजबूर करता है विश्वविद्यालय दलित छात्रों के साथ भेदभाव करने की परम्परा को लिए हुए था जिसका रोहित द्वारा कई महीनो से विरोध चल रहा था लेकिन विश्वविद्यालय की सामंतवादी रवैये के आगे रोहित की एक भी न चली वह अपने खिलाफ होने वाली कार्यवाही को जातिवादी राजनीति से प्रेरित होने का निरंतर आरोप लगा रहा था | रोहित की आत्महत्या को जातिवादी चश्मे से देखने को मना करने वाली मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी स्वयं प्रेस कांफ्रेंस में झूठा बयान देती है कि रोहित के खिलाफ जिस विश्वविद्यालय कार्यकारिणी की परिषद ने निर्णय लिया था उसका अध्यक्ष स्वयं दलित था और हास्टल का वार्डन भी दलित था| अगर रोहित की आत्महत्या को लेकर विरोध प्रदर्शन करना जातिवाद है तब  यह भी सवाल होना चाहिए कि क्या किसी की जाति का खुलासा करना जातिवाद नही है ? अगर विश्वविद्यालय में ''मुजफ्फरनगर अभी बाकी है ''फिल्म दिखाया जाना या फिर याकूब की फासी का विरोध करना देशद्रोह है तो फिर स्वामी सुब्रमण्यम,योगीआदित्यनाथ,संध्वी प्राची जैसे लोगों द्वारा दिए जाने वाले बयानों को क्या कहा जाएगा? यदि याकूब की फासी का विरोध करना राष्ट्रद्रोह है तो देश में बहुत सारे संवैधानिक,गैरसंवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग भी देशद्रोही है क्योंकी इन्होने भी याकूब की फासी के समय इसका विरोध किया था|वैसे तो अब देश की सरकार को एक मानक का निर्धारण कर ही देना चाहिए कि कौन सी घटना जातिवादी ,नक्सलवाद की श्रेणी में आएगी,कौन सी घटना देशद्रोह या राष्ट्रद्रोह कही जाएगी या फिर किस घटना पर सियासत की जाएगी| जेएनयू जैसे सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय को जब जेहादियों ,नक्सलवादियों का गड़ बोला जाता है और हरियाणा में दलितों के साथ होने वाली हिंसा की तुलना जब कुत्ते पर पत्थर मारने से की जाती है तब देश की सत्ता इनके खिलाफ कुछ नही करती है और ना ही इनको राष्ट्रद्रोही कहा जाता है लेकिन जब विश्वविद्यालय में जब छात्रों के बीच वैचरिकी संघर्ष होता है तब उनके साथ अमानवीय तरीके से पेश आते हुए हास्टल से बेदखल कर दिया जाता है विश्वविद्यालय के सार्वजानिक स्थानों पर जाने से रोक लगा दिया जाता है,यह कैसा लोकतंत्र है ?जहाँ पर लोगों के साथ इंसानियत के आधार पर नही बल्कि पहचान के आधार पर निर्णय लिए जाते है |रोहित द्वारा लिखे गये पत्र की यह लाईन कि ''आदमी की कीमत उसकी तात्कालिक पहचान और निकट संभावनाओ तक सिमित हो गयी है, एक आदमी को कभी दिमाग से नही आका जाता है ''समाज के ऐसे तबके की ओर इशारा कर रही है जिसके पास सामर्थ्य है क्षमता है लेकिन उसकी कोई सामाजिक पहचान नही है या फिर बनाने नही दिया गया क्योंकी उनको ऐसा करने का अवसर नही दिया गया|इस बात का अनुभव रोहित ने विश्वविद्यालय में भी  किया जिसने उसकी भावनाओं को आहत किया और अगस्त से लेकर जनवरी तक अपने खिलाफ लिए गये निर्णयों के विरुद्ध लड़ते हुए रोहित को जब यह लगने लगा कि सत्ता या राज्य को उपकृत करने वाले विश्वविद्यालय में उसे इंसाफ नही मिल सकता है तो उसके इंसाफ की उम्मीदें अपना धैर्य खोने लगी और इस धैर्य खोती इंसाफ की उम्मीदों से उसने एक नये संघर्ष का आगाज अपनी आत्महत्या से कर दी |
       रोहित की आत्महत्या सिर्फ एक आत्महत्या ही नही है यह देश के विश्वविद्यालयों के कार्यप्रणालीयों,स्वायतता और निर्णयन की क्षमता पर भी सवालिया निशान लगाती है विश्वविद्यालय जोकि आजादखयाली और खुले दिमागों का रंगमंच होता है लेकिन राज्य या सत्ता के हस्तक्षेप ने शिक्षण संस्थाओं की स्वतन्त्रता का इस प्रकार से गला घोट रहे है उससे विश्वविद्यालय सर्जनात्मकता का रंगमंच न रहकर सिर्फ कटपुतली बनकर रह गया है जिसका रिमोट कंट्रोल सत्ता के हाथ में रहता है | इस प्रकरण में विश्वविद्यालय की गतिविधियों पर सवाल खड़े करने वाले बिंदु है कि आखिर क्यों विश्वविद्यालय इतने दिनों तक रोहित के मामले को लटकाए रखा ?या विश्वविद्यालय किसी के निर्णय का इंतजार कर रहा था | इन मामलों से पता चलता है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय रोहित के मामलें को लेकर कोई संवाद नही करना चाहता था जो विश्वविद्यालय परिसर की संवेदनहीनता को दर्शाता है जिसको पाउलो फ्रेरे ''विश्वविद्यालय मौन संस्कृति ''कहते है जब किसी शिक्षण संस्थान में संवाद नही स्थापित होता है तो उस शिक्षण संस्थान में नवाचार का सृजन नही हो पाता है क्योंकी तब यह दिमागों को जड़ बनाने लगता है |
         रोहित वेमूला की आत्महत्या से देश की  सरकार को सबक लेना चाहिए सिर्फ भावुक होने से और यह कहने से कि ''कारण अपनी जगह होंगे राजनीति अपनी जगह होगी लेकिन सच्चाई यह है कि माँ भारती ने अपना लाल खोया है ''से रोहित के आत्मा को शांति नही मिलेगी जरूरत है इस आत्महत्या  के पीछे काम करने वाली पूरी व्यवस्था को पहचानकर उसका जड़ से उन्मूलन करने की जिससे शिक्षण संस्थाओं में लोकतांत्रिक समतामूलक माहौल स्थापित हो सके ताकि भविष्य में कार्ल सागान जैसा बनने का सपना देखने वाला अगला रोहित वेमूला आत्महत्या न करे|आखिर कब तक ऐसी व्यवस्था रहेगी जो लोगों को आत्महत्या करने को मजबूर करती रहेगी ?कब तक लोगों को भेदभाव की नजर से देखा जाएगा ?रोहित न सिर्फ स्वयं को मार गया बल्कि हम सबको मार गया इस पूरी व्यवस्था को मार गया जो जड़ता से ग्रसित है मनुवादी सोच से ग्रसित व्यवस्था के खिलाफ रोहित की लड़ाई को आगे बढ़ाने की जरूरत है और तब तक बढ़ाना है जब तक इंसाफ न मिल जाय यही रोहित के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी |
जैनबहादुर, जौनपुर ,यू पी
पेशा -विद्यार्थी